Thursday, January 21, 2010

अधर से अधर का मिलन


अधर से अधर का मिलन होने दो
जलती सांसों कि ठंडी अगन होने दो
ऋतू यह यौवन कि है
गोरी तू सुन ले जरा
हूँ मैं मिलन को आतुर
जैसे यह गगन और धरा
हूक सी एक उठती है
रह-रह के जो तन-मन में
खत्म मीठी से यह
चुभन होने दो


अधर से अधर का मिलन होने दो
जलती सांसों कि ठंडी अगन होने दो


मैं अकेला ही
जन्मों से हूँ चलता-चला
दूर मुझसे रहोगी
तुम कब तक भला ?
अब तो बांहों भर लो
मुझे तुम जरा
अपनी जुल्फों में दे दो
तुम मुझे आसरा
ख़त्म विरह के
यह वन सघन होने दो


अधर से अधर का मिलन होने दो
जलती सांसों कि ठंडी अगन होने दो


कोयल कु-कु है क्या गाती सुनो
पुष्प हँसते हुए क्या कह रहे तुम सुनो
शीतल बहती हुए यह पावन क्या कहे
सागर कि उठती हुए लहर क्या कहे
क्या कहती है ?
कवि की कविता-ग़ज़ल तुम सुनो
यह सब कहते हैं कि
प्रेम ही जग में सबसे पावन-मधुर
सत्य इन सबके तुम कथन होने दो
दो बदन एक तन-मन होने दो


अधर से अधर का मिलन होने दो
जलती सांसों कि ठंडी अगन होने दो

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